बिन मान अमृत पीये राहु कटाये शीश ॥
अपनी टूटी कुटिया में भी अतिथि ,लोक कल्याण हेतु , जग धर्मार्थ हेतु मेहमान लोग प्रंशनीय पूजनीय होते है , अनाधिकारी दंडनीय होते है ।
आवत ही हरषे नहीं ,नैनन नहीं स्नेह ।
तुलसी तहा न जाइये कंचन बरसे मेह ॥
जहा जाने पर हर्ष प्रेम स्नेह नहीं ,वहा भले ही कितना धन बरसे नहीं जाना चाहिए ॥।
ये मान ही है , जहा श्रीराम शबरी के जुठे बेर खाते है , तथा लक्षमण मुह बिचकाते है ।
संसार कस्ट ,देव प्रार्थना पर शिव हलाहल विष ग्रहण कर जाते है, कृष्ण गरीब विदुर जी के घर केले के छिलके खा जाते है , परंतु कही कोई शिकायत नहीं करते सुदामा का चरण बंदन कर तीनो लोक देने पर उतारू हो जाते है , व फिर भी बल्कि भक्तो के एहसान के ऋणी हो जाते है ,।
ये मान ही भक्त भगवान् के बीच फर्क मिटा देता है , ये मान ही कौन किसका भक्त है , इसमें असमंजस उत्पन्न कर देता है ।
वही कितनी भी वैभवता हो , अनैतिकता , गरिमा , अधर्म का उल्लंघन करने पर व्यक्ति वांछित वस्तु का अधिकारी नहीं होता है । तथा उसकी वर्तमान पात्रता के साथ संचित मूल्य प्रतिष्ठा भी चली जाती है ।
रावण , कंस , दुर्योधन, इसके उदहारण है , ।
अतः मान सहित जीये , स्नेह हेतु प्रेम सहित ही कही जाये ॥
लेखक ;- प्रेम सहित ___रविकान्त यादव for more click ;-https://www.facebook.com/ravikantyadava
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